अपने ही अपने होते हैं - कविता - रविन्द्र कुमार वर्मा

अपनों का हाथ हो हाथों में, हर मुश्किल आसाँ होती हैं।
अपनों के बिना गर सच पुछो, बगियाँ भी वीराँ होती है।।

अपनों के हाथ मिलें जब जब, तब चमके सितारे हाथों में।
अपने मिल कर जब बैठे तो, तब फूल खिले हर बातों में।
जिन्हें साथ नहीं है अपनों का, उनकी तो क़िस्मत सोती है।
अपनों के बिना गर सच पुछो, बगियाँ भी वीराँ होती है।।

सुख बेल की तरह बढ़ता है, दुख क्षण भर ना रुक पाता है।
अपनों के मेल मिलाप से तो, घर ही मन्दिर बन जाता है।
प्रभु का भी वहीं बसेरा है, जहाँ जगती प्यार की ज्योति है।
अपनों के बिना गर सच पुछो, बगियाँ भी वीराँ होती है।।

अपनों के साथ से श्री राम ने, रावण को रण में पटका था।
ना साथ मिला अपनों का तो, महाराणा बन बन भटका था।
निश्चित ही जीत है अपनों से, दूनिया तो रुलाती, रोती है।
अपनों के बिना गर सच पुछो, बगियाँ भी वीराँ होती है।।

दो भुला गिले शिकवे सारे, अपनों को अब अपना लो तुम।
ना जाने कब तक है जीवन, अब इसको स्वर्ग बना लो तुम।
ऐसे मिल जाओ जैसे के, वो सीप है और तु मोती हैं।
अपनों के बिना गर सच पुछो, बगियाँ भी वीराँ होती है।।

अपनों का हाथ हो हाथों में, हर मुश्किल आसाँ होती है
अपनों के बिना गर सच पुछो, बगियाँ भी वीराँ होती है।।

रविन्द्र कुमार वर्मा - अशोक विहार (दिल्ली)

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