न शिकवा ना शिकायत लाज़मी है।
मुहोब्बत बस मुहोब्बत लाज़मी है।।
दरख़्तों को मुनासिब सख़्तियाँ भी,
गुलों को तो नज़ाकत लाज़मी है।
क़फ़स गर तोड़ने हैं ज़िन्दगी के,
परिन्दों फिर बग़ावत लाज़मी है।
किताबों से परे भी कुछ लिखा है,
क्यों बच्चों की शरारत लाज़मी है।
अनाजों की तिजारत कर रहे हो,
क्या फ़ाक़ों की तिजारत लाज़मी है।
वो कहते हैं हमारा वास्ता क्या,
शुक्रिया ये मश्वरत लाज़मी है।
मनजीत भोला - कुरुक्षेत्र (हरियाणा)