यक़ीन - कविता - विनय "विनम्र"

जीत का इतना यक़ीन मत करो!
की हार पे रोना आए।
ख़्वाब में हो मखमली लेकिन
सामनें पत्थर का बिछौना आए।
ये वक़्त है तिलस्म का ख़ंजर रखता
भार इतना हीं रहे जो आराम से ढोया जाए।
शोर क्यों है हवाओं में सबलता का?
पास ऐसा क्या है जिसे
तहज़ीब से संजोया जाए।
जन्म, मृत्यु, हानि, लाभ, सब है उसी के हाथ
शरीर की मिट्टी में क्यों?
बीज उन्माद का बोया जाए।
यश, अपयश भी प्रकृति पास रखती है "विनम्र"
कौन सा धागा बचा
जिसमें अहंकार पिरोया जाए।
जीत से उम्मीद इतना मत रखो!
हार पे रोना आए।।

विनय "विनम्र" - चन्दौली (उत्तर प्रदेश)

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