उग रही औरतें - कविता - रमेश कुमार सोनी

सिर पर भारी टोकरा
टोकरे में है - भाजी, तरकारी
झुण्ड में चली आती हैं
सब्जीवालियाँ

भोर, इन्हीं के साथ जागता है मोहल्ले में;
हर ड्योढ़ी पर
मोल-भाव हो रहा है
उनके दुःख और पसीने का।

लौकी दस और भाजी बीस रुपए में
वर्षों से खरीद रहे हैं लोग,
सत्ता बदली, युग बदला,
लोग भी बदल गए,
लेकिन उनका है।

वही पहनावा और वही हँसी - बोली;
घर के सभी सदस्यों को चिन्हती हैं वे
हाल-चाल पूछते हुए
दस रुपए में मुस्कान देकर लौट जाती हैं।

शादी-ब्याह के न्यौते में आती हैं
आलू, प्याज, साबुन, चाँवल और
पैसों के भेंट की टोकरी लिए,

कहीं छोटे बच्चे को देखी तो
ममता उमड़ आती है,
सब्जी की टोकरी छोड़
दुलारने बैठ जाती हैं;

मेरे मोहल्ले का स्वाद
इन्ही की भाजी में ज़िंदा है आज भी।
औरतों का आत्मनिर्भर होना अच्छा लगता है,
रसोई तक उनकी गंध पसर जाती है।

ये बारिश में नहीं आती हैं,
उग रही होती हैं
अपनी खेतों और बाड़ियों में
सबके लिए थोड़ी-थोड़ी सी।

अँखुआ रहे हैं -
आकाश, हवा, पानी
इनकी भूमि सी कोख में
सबके लिए थोड़ी-थोड़ी सी...।

रमेश कुमार सोनी - रायपुर (छत्तीसगढ़)

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