जब भी
तेरे पास आने की कोशिश
करता हूँ,
तू,
एक हवा के झोंको-सा
मेरे बदन को छू के
निकल जाती हो।
तेरी सुगंध हवाओं से मिल
आम की मंजरियों में
विलीन हो जाती है;
जिस पर भौरें गुंजार करते हैं।
जिसकी अनुभूति निरंतर
मेरे नासापुटों से हृदय में
उतर आती है।
सरसों के खेतों में
पगडंडियों पर तेरा दौड़ना,
उसके पुष्पों से
अपने अलकों का श्रृंगार करना,
प्रतीत होता
जैसे स्वच्छ आकाश में
तारें टिमटिमा रहे हों।
कहीं दूर पहाड़ पर
मंदिर की घंटी का स्वर
सुनाई देता
जो वहाँ तेरे होने का
संकेत देता है।
पास ही झाड़ियों के पीछे
बहती नदी की कल कल की गूँज
तेरे पाँवों की नूपुर की ध्वनि-सा
रस घोलती है मेरे कानों में।
इन सबसे होकर
मैं गुज़रना चाहता हूँ।
उस एकांत अरण्य में,
जिसकी वादियों में,
आज भी
तेरा प्रणय-गीत गूँजता है।
उस निर्झर के समीप
जहाँ
कोयल कूकती है।
उस पहाड़ी के चोटी पर
जहाँ
हमारी श्रांतता शांत होती है।
और उस
उन्मुक्त नभ में
जहाँ
पंछी युगल सारे पराभव भूलकर
विचरण करते हैं।।
प्रवीन "पथिक" - बलिया (उत्तर प्रदेश)