नारी-रक्षा के सही मायने - कविता - डॉ. अवधेश कुमार अवध

एक बात बतलाओ मुझको नरता के संवाहक।
रक्षा करने में नारी के लगे हुए हो नाहक।
फिर भी नारी नहीं सुरक्षित घर हो या हो बाहर।
एक बार बस बंध छोड़ दो ले लेगी अपना हक़।।

कहीं बाँधते हो सुहाग बन उसकी आज़ादी को।
पिता भ्रात बन बोझ सरिस ही फेंक दिए शादी को।
जिसको जन्माया पाला वह पूत नहीं कुछ कम है।
रक्षा के पर्दे में लाता हर पल बरबादी को।।

रक्षक बन नारी को करता नर ही दुर्बल जग में।
क़दम क़दम पर बोध कराता बाहर भीतर मग में।
यदि नाना सा मित्र और ताट्या सा गुरु नर होता।
हर नारी लक्ष्मीबाई बन अरि को रखती पग में।।

फिर रक्षा का सूत्र जहाँ में सच्चा आशय पाता।
चुटकी भर सिंदूर माँग में लगकर के इतराता।
पिता पुत्र भी ख़ुशियाँ पाकर फूले नहीं समाते।
नारी के हाथों समाज का परचम नभ फहराता।।

डॉ. अवधेश कुमार अवध - गुवाहाटी (असम)

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