जब कोई परदेशी
गाँव आता था
मिठाई, कपड़े
घरेलू रोज़मर्रा की चीज़ें लाता था,
जिसके घर आते थे
उसके बच्चों में खुशियों की लहर दौड़ उठती थी।
मैं भी सोचता था
बड़ा होकर शहर जाऊँगा।
वो भी दिन आया
लेकिन गाँव फिर अपनी ओर खिंचने लगा,
वह ताल-तलैया, कुएँ, पोखर,
लहराती फ़सलें,
गीत कजरी,
कबड्डी क्रिकेट,
गिल्ली डंडा,
पता नही क्या क्या?
लेकिन ग़रीबी शहर में रोक ली,
चार पैसा गाँव भेजता रहा
अपने परिवार को खुश रखता रहा।
पहले पल-पल याद आता था,
आज कभी-कभी।
अब मैं शहरी हो गया।।
संजय राजभर "समित" - वाराणसी (उत्तर प्रदेश)