किरदार - कविता - पुनेश समदर्शी

असली किरदार को कोई जानता नहीं,
नकली किरदार के चर्चे बड़े हैं।
सच्चे ग़रीब की कोई मानता नहीं,
झूठे अमीर के साथ खड़े हैं।
नसीब नहीं दो रोज़ की रोटी ग़रीब को,
"आज पनीर नहीं पापा" बच्चे अमीर के अड़े हैं।
इंसानों को तरसतीं इमारतें अमीरों की,
बच्चे ग़रीब के फुटपाथ पर पड़े हैं।
हैं लाख बुराइयां अमीर में मगर, अच्छाई बस एक दौलत घनी है,
हैं लाख अच्छाईयां ग़रीब में मगर, बुराई बस एक दौलत नहीं है।
क्या हाल होगा दुनियाँ का समदर्शी,
किताबें फुटपाथ पर, जूते शीशों में जड़े हैं।
क्या करे सच्चा ग़रीब समदर्शी,
झूठे अमीर न्यायाधीश बने हैं।
बिठाये जाते हैं मंचों पर, अमीर बड़े शौक से,
लोग सीरत नहीं सूरत देखते हैं।
बड़ा कठिन है आज इंसान को समझना,
अवगुण अनगिनत सही, अमीरी खूबसूरत देखते हैं।
नहीं फर्क पड़ता मैं अकेला हूँ, चेहरे बनावटी मेरे साथ नहीं हैं,
जो कल कहते थे कि बचते हैं बुराई से,
जहाँ बुराई है, वे आज वहीं हैं।
जिन्हें समझता था, समदर्शी तू खुद्दार
नकली किरदार आज वही हैं।
बताते हैं ख़ुद को बात पर मरने वाले,
वे असली किरदार आज नहीं हैं।

पुनेश समदर्शी - मारहरा, एटा (उत्तर प्रदेश)

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