रोज़ आते हो - ग़ज़ल - प्रदीप श्रीवास्तव

मेरे ख़्वावों में, रोज़ आते हो।
मेरे कानों में, गुनगुनाते  हो।।

तेरे कूचे से, जब निकलता हूँ,
तो खड़े छत, पे मुस्कुराते हो।

ख़ुशबुओं से हों, तर-ब-तर राहें,
रोज़ जिनसे भी, आते-जाते हो।

चंद लम्हों का, साथ दो मुझको,
रोज़ ऐसे ही, टाल जाते हो।

ये हवा, धूप, चाँदनी, शबनम,
सबमें बस तुम, ही झिलमिलाते हो।

छोटे बच्चों सी, हरकतें लगतीं,
जब भी बरसात, में नहाते हो।

प्रदीप श्रीवास्तव - करैरा, शिवपुरी (मध्यप्रदेश)

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