जंगल - कविता - अवनीत कौर "दीपाली सोढ़ी"

मन गहरा, घना जंगल समान,
गुमशुदा है, इस जंगल में बहुत अरमान।
मीलो के हैं फ़ासले,
मेरे और इसके दरमियान।
बहुत सी उमीदों के मीनार,
किया मन जंगल में निर्माण।
ढह गई सब उमीदें
दफ़न हुए सब अरमान।
चारों और फैली ख़ामोशी,
मन जंगल में मचा रुदान।
आस्तित्व का जब हुआ अपमान।।

अनसुलझे, अनकहे, अनेकों राज़,
हर राज़ ने गिराई गाज।
मन जंगल में आग लगाए अल्फ़ाज़,
जंगल को देखें या देखें समाज।
चारों और जंगली गिद्ध और बाज,
न ख़त्म होने वाले हैं इतराज़।
कब होगा शांति का आग़ाज़?

अवनीत कौर "दीपाली सोढ़ी" - गुवाहाटी (असम)

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