मैं ज़िंदा होकर भी मज़ार हूँ - ग़ज़ल - एल. सी. जैदिया "जैदि"

मैं ज़िंदा होकर भी मज़ार हूँ।
हाँ, बेशक मै जारो का जार हूँ।।

जहाँ ज़मीर जो, अपना बेचता,
मैं वो बदनशीब सा बाज़ार हूँ।

जलते है लोग ग़म-ऐ-हाल में,
कैसे बुझाऊँ, मैं ख़ुद आज़ार हूँ।

ना गिरे जो ओरो की नज़र से,
मैं करता उन्ही का, इंतज़ार हूँ।

जिनको भी कहा है सच मैंने,
लगा उन्ही को मैं बुरा हज़ार हूँ।

उजड़ा हुआ चमन था "जैदि",
लो आज मैं फिर से गुलज़ार हूँ।

एल. सी. जैदिया "जैदि" - बीकानेर (राजस्थान)

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