होलिकोत्सव - कविता - विनय "विनम्र"

इस बार भी होली आ गई!
मेरे भीतर के मानव ने
आज बताया फिर से मुझको,
रंग, भंग तरंग से भींगी
उल्लास हास परिहास जगी सी
काव्य गति में बहती रंग संग
तन के कपड़ों को भी रंगनें
अपनी हमजोली आ गई
इस बार भी होली आ गई।

इस बार भी होली आ गई!
पेड़ो के शाखों पर देखो
पत्ते रंगे हुए हैं सारे,
बौराए बौंरों को फिर से
भाँग पिला किसने बौराए,
चिड़ियों के पर भी नव यौवन
रंग लिये फिरते मधुवन में
पर्वत हिम से पतझड़ नदी में
रंग अलग ही हैं बिखराए
दिन में चढा ये रंग नशा का
एहसासे शाम करा गई
इस बार भी होली आ गई।

विनय "विनम्र" - चन्दौली (उत्तर प्रदेश)

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