गाँव का घर - कविता - गुड़िया सिंह

दरक गई है दीवारे,
छत उसकी अब टपकती है,
वो गाँव वाला घर तेरा,
जिसमें अकेली "माँ" रहती है।
बचपन मे जहाँ बैठकर,
तू घण्टो खेला करता था,
जिसकी गोद मे खाट बिछाए,
सुकून से सोया करता था,
सुनी है, वो आँगन अब,
वहाँ ख़ामोशी बोला करती है,
वो गाँव वाला घर तेरा,
जिसमें अकेली "माँ" रहती है।
जा बसे तुम तो 
शहर में,
उस घर से नाता तोड़ दिया,
बचपन बिताई संग जिसके,
उसको क्यो तन्हा छोड़ दिया,
उस घर की जर्जर चौखट दीवारें,
राह तेरी तकती है,
वो गाँव वाला घर तेरा,
जिसमें अकेली "माँ" रहती है।
होती है जब भी बारिश,
घर मे पानी बरसता है,
राते गुज़रती है, "माँ",
कोने में बैठ कर,
बिछावन उसका भीगता है,
न बरसे बरसात में भी पानी,
हर शाल दुआ "माँ" करती है,
वो गाँव वाला घर तेरा,
जिसमें अकेली "माँ" रहती है।

गुड़िया सिंह - भोजपुर, आरा (बिहार)

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