झूठ के पाँव - कविता - श्याम निर्मोही

अक्कड़-अक्कड़ के 
चल रहा था,
सीना तान-तान के 
चल रहा था,
जैसे जीत हासिल कर ली हो उसने सत्य पर।

समझाया था मैंने उसे,
पर, उसने एक ना सुनी।
चलता रहा मद में चूर होकर,
जैसे उसने फ़तेह कर लिया हो कोई किला।

वक़्त को अँगूठा दिखा रहा था वो,
अपनी करनी पर इतरा रहा था वो,
जैसे मुट्ठी में कर ली हो उसने सारी कायनात।

और 
एक दिन, वक़्त ने पलटी मारी, 
गिर गया वो 'धड़ाम...!!! से' औंधें मुँह,
जैसे गिरता हो शेयर बाज़ार,
बताया था मैंने उसे कि-
"झूठ के पाँव नहीं होते हैं!"

श्याम निर्मोही - बीकानेर (राजस्थान)

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