बने न जीवन ज़हर - कविता - सूर्य मणि दूबे "सूर्य"

तुम भी फटेहाल और वो भी फटेहाल,
तुम तन दिखाते रहे वो तन छिपाता रहा।
ठंढ में ठिठुर कर वो जीता रहा,
दाने दाने तरस कर वो मरता रहा।
पसंद न पसंद के तुमने नखरे किए,
तुम्हारे फेके हुए को कूडे़ से खाता रहा।
ज़हन में हज़ारों सवालात थे,
ज़हर को अन्तर्मन में चढाता रहा।
सेल्फी तो तुमने हज़ारों ही ली,
लाइक से लायक तुम बन न सके।
झूठी दया के समन्दर बने,
पर किसी के सहायक तुम बन न सके।
आँखों में उनकी झाँका नहीं,
दिल के झरोखे से ताका नहीं।
किसी को सच्ची खुशी न दिए,
क्या दिया तुमनें उनको निराशा नहीं।
राहों में पीछे वो नंगे पाँव थे,
रोते थे हँसकर ये क्या भाव थे।
भूखे थे बच्चे भिखारी के वो,
न जाने तन मन पर कितने घाव थे।
पेट था खाली और तन नंगा मगर,
वो भिखारी नहीं पर धंधा मगर।
दान न दया का कब होगा प्रहर,
न बनें किसी नन्हें का जीवन ज़हर।।

सूर्य मणि दूबे "सूर्य" - गोण्डा (उत्तर प्रदेश)

Instagram पर जुड़ें



साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिए साहित्य से जुड़ी Videos