नन्दू - कहानी - डॉ. सरला सिंह "स्निग्धा"

नन्दू को पानी से बहुत डर लगता था। सलोनी को उसकी आदत का पता था, वह प्रायः जान बूझकर जब भी उसे पानी पिलाती उसके मुँह पर पानी छिड़क देती। कई बार नन्दू जब देखता की वह पानी ला रही है तो एक छोटे बच्चे की तरह गाड़ी के पीछे छिप जाता और चुपके से देखता की सलोनी पानी रखकर गई की नहीं। सलोनी जब वहाँ पानी रखकर हट जाती तब वह उधर निकलकर आता और तब पानी पीता। उसके इस लुकाछिपी को देख आश्चर्य भी होता था। सलोनी जब उसके लिए खाना लाती तब वह सीधे सीधे सामने आ जाता और जो कुछ भी मिलता खाकर चला जाता।

नन्दू प्रायःरोज ही उस गली से गुज़रता था लेकिन रुकता केवल सलोनी के ही दरवाजे पर। वह पूरी गली में कहीं भी खड़ा हो सलोनी की एक आवाज़ पर भागा चला आता। वह जैसे ही पुकारती "नन्दू ", नन्दू एक बच्चे की तरह उसकी तरफ़ भागा चला आता। जो भी इस दुर्लभ दृश्य को देखता आश्चर्यचकित रह जाता।

"सब्जी ले लो...सब्जी"
आवाज़ लगाता हुआ सब्जीवाला गली से गुज़रता है। उसे देख सलोनी ने उसे रोका,
"भैया रुकना ज़रा।"
सब्जीवाला खुश हो जाता है,उसे पता है की अब उसकी ढेरसारी सब्जियाँ बिक जाएँगी। वह वहीं रुक जाता है।

सलोनी अपना पर्स लेकर तेजी से नीचे आई। सब्जीवाले के पास वह नन्दू के लायक सब्जी पहले देखती अपने लिए बाद में।
भैया ये बैंगन कैसे दिए?
"ले लो बिटिया, दे देना जो तुम्हारी मर्ज़ी।"
"अरे नहीं आप रेट बताओ।"
"आप ले लो बिटिया, रेट सही लगा देंगे।"
"ठीक है, पाँच किलो तौल दो। और वह पालक भी दो किलो दे दो।"
वह तीन चार तरह की सब्जियाँ लेकर और सब्जीवाले को पैसे देकर चली जाती है।

"ये क्या करती है इतनी सब्जी लेकर?"
एक महिला बोली वह शायद किसी के यहाँ घूमने
आई थी, तभी उसको कुछ पता नहीं था।
"देखती नहीं वह मोटा सा जो साँड़ आता है, यह सब्जियाँ उसी के लिए खरीदती है।"
दूसरी महिला ने जवाब दिया। उसकी आवाज़
में तारीफ़ कम ईर्ष्या अधिक थी।
"अच्छा यह तो बहुत ही पुण्य का काम है, लोग इंसान तक को नहीं पूछते वह तो मूक जानवर के लिए इतना करती है।"
उनकी आँखों में सलोनी के प्रति श्रद्धा भाव झलक रहा था। "हाँ ये तो है।"
फिर थोड़ा सा ठहरकर बोली "वह तो बिल्लियों को भी दूध पिलाती है, भला बिल्ली भी कोई पालता है।"
"दिल होना चाहिए, दिल। बिना दिल के कोई जानवर नहीं पाल सकता और न खिला ही सकता है।"
दूसरी महिला रजनी के दिल में सलोनी के प्रति आदरभाव और भी बढ़ गया था।

इतना सुनते ही पहली महिला ने चुपके से वहाँ से खिसकने में ही अपनी भलाई समझी। उसे शायद सलोनी की बड़ाई भी नहीं सही जा रही थी। वह सब्जी लेकर अपने घर चली गई।

नन्दू प्रायः दो तीन दिन के अन्तराल पर उधर से ज़रूर गुज़रता और सलोनी के दरवाजे पर आकर रुक जाता। सलोनी भी उसके लिए सब्जी, सब्जी के छिलके आटा, रोटी, चावल आदि सहेजकर रखती। नन्दू को तरबूज के छिलके भी बहुत पसंद थे, उसे वह बड़े मन से खाता था।
सलोनी पहले नन्दू को कुछ न कुछ खिलाती फिर उसके लिए पानी भी ले जाती। नन्दू को जो भी चीजें पसन्द आतीं सलोनी उसके लिए ज़रूर रखती थी। जो सब्जी सस्ती मिल जाती उसे तो चार पाँच किलो इकट्ठा ही तौलवा लेती। नन्दू चार पाँच किलो से अधिक नहीं खाता था।

सलोनी प्रायः उसको सहलाते सहलाते कभी कभी उसके मुँह पर हल्की सी चपत भी लगा देती लेकिन नन्दू ने कभी भी सींग नहीं चलाई। वह चुपचाप खाकर वहाँ से चला जाता। उसकी जगह कोई और होता तो वह शायद उसे  उठाकर दूर फेंक देता लेकिन वह इंसानों की तरह एहसान फ़रामोश नहीं था। जिससे लोग डरकर बचकर निकलते थे उसे सलोनी अपने हाथ से खिलाती और पानी पिलाती थी।
गर्मी के समय में तो जब तेज धूप से बचने के
लिए लोग बाहर निकलने से भी बचते हैं, नन्दू के आने पर  सलोनी डलिया में कच्ची सब्जी रोटी आदि लेकर नीचे आती नन्दू के आगे डलिया रख देती। जब नन्दू खाने लगता तब फिर ऊपर जाती और ऊपर के कमरे से बाल्टी का पानी लेकर नीचे आती और जब नन्दू खा पी लेता तब ऊपर जाती।
ऐसा कार्य सभी के बूते का नहीं होता इन
सबके लिए दिल में प्रेम व दया की भावना तथा संवेदनशीलता भी होनी चाहिए। आज के समय
में जब लोग इंसान को भी बिना स्वार्थ के एक गिलास पानी तक नहीं पूछते सलोनी का यह कार्य एक आदर्श प्रस्तुत करता है। उसका यह कार्य सराहनीय तो है ही समाज को एक आदर्श भी दिखाता है।

आज सलोनी कुछ उदास सी थी। वह बार-बार नीचे गली में झाँकती और फिर वापस आकर बैठ जाती। नन्दू के प्रति उसके मन में एक स्नेह सा उत्पन्न हो गया था। उसको कुछ
खिलाकर उसे असीम सुकून की प्राप्ति होती थी।

"क्या हुआ सलोनी? परेशान क्यो हो?"
सलोनी को परेशान देख उसके पति ने पूछ ही लिया।
"अरे पता नहीं क्या हुआ, आज कई दिनों से नन्दू नहीं दिखाई दे रहा है, कहीं बीमार तो नहीं पड़ गया है।"
सलोनी की आवाज़ में एक अजीब-सी पीड़ा थी।

तभी उसे नीचे से नन्दू की आवाज़ सुनाई दी, सलोनी के खुशी का ठिकाना ही न रहा।
उसने नीचे झाँककर देखा तो नन्दू गेट के सामने खड़ा ऊपर ही देख रहा था मानों बुला रहा हो "आओ मुझे भूख लगी है, कुछ खाने को दो।"
सलोनी सब्जी की डलिया लेकर सीढ़ियों से नीचे उतरने लगी। उसके चेहरे पर एक अजीब सी शांति तैर रही थी।

सलोनी ने नन्दू के सामने डलिया रख दी उसके माथे को सहलाया।
"कहाँ चले गये थे?" कहकर हल्की सी चपत लगाई और पानी लेने चली गयी।
पानी लाकर जैसे ही नन्दू के सामने रखा और उसके ऊपर पानी छिड़कने ही वाली थी की उसकी नज़र नन्दू के पैरों पर गयी। नन्दू के पैरों में चोट लगी हुई थी। नन्दू के खुर में घाव हो गया था, शायद कोई नुकीली चीज चुभ गयी हो या किसी ज़हरीले कीड़े आदि ने काट लिया हो। सलोनी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था।

"सुनिए जरा चोट पर लगाने वाली कोई क्रीम
हो तो नीचे फेंक दीजिए।"
सलोनी ने अपने पति को आवाज़ लगायी।
सलोनी के पति दीपक भी उसी की तरह ही   
दयालु किस्म के इंसान थे। वे दो तीन तरह की
क्रीम लेकर स्वयं नीचे आए।
"नन्दू, पैर में चोट कैसे लग गई?" कहकर नीचे झुककर नन्दू के पैर में चोट की दवा लगाने लगे। नन्दू चुपचाप खड़ा दवा लगवाता रहा।
उसकी आँखों में स्वतः आँसू की बूँदें छलक आई थीं।  "नन्दू कल फिर आना, ठीक है।" सलोनी ने नन्दू को सहलाते हुए कहा। नन्दू ने भी उसे देखकर ऐसे सिर हिलाया मानों सबकुछ  समझ रहा हो। उन लोगों की ओर कुछ देर देखता रहा। फिर दवा लगवाकर वह धीरे धीरे लँगड़ाता हुआ चला गया।

शाम को जानवरों के डॉक्टर से पूछकर सलोनी और उसके पति दवा ले आए। दूसरे दिन फिर नन्दू का इन्तज़ार करने लगे। उन दोनों को पूरा विश्वास था की नन्दू ज़रूर आएगा।
दोपहर तक का समय काटना उन दोनों को भारी पड़ रहा था। दोपहर में जैसे ही नन्दू आता दिखा उनके आश्चर्य की सीमा न रही। नन्दू आकर ठीक सलोनी के गेट के सामने खड़ा हो गया। आज सलोनी और उसके पति दोनों ही
नीचे उतरे। एक ने सब्जियों की डलिया और दवा ले रखी थी और दूसरे ने पानी की बाल्टी।

नन्दू ने सब्जी खाई, पानी पिया और दवा लगवाकर चला गया। यही क्रम हप्ते भर चला और नन्दू का पैर ठीक हो गया। अब वह सीधे चलने लगा। नन्दू के क्रियाकलापों को देखकर लगता ही नहीं था की वह इंसानी भाषा नहीं
जानता। अच्छे और बुरे लोगों के बीच में भी अन्तर करना उसे बखूबी आता था।

डॉ. सरला सिंह "स्निग्धा" - दिल्ली

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