प्रेम और जाति-धर्म - कविता - नीरज सिंह कर्दम

मैं आ जाती तुम्हारे साथ
क़दम से क़दम मिलाकर चलने को,
पर मेरे पैरों को जकड़ लिया
जाति-धर्म की बेड़ियों ने।
हम मिलते थे
हर रोज़ उस स्कूल के मैदान में,
स्कूल की कैंटीन में
एक दूसरे का खाना खाते थे,
तब हमारे बीच न थीं
कोई जाति-धर्म की बंदिशें।
हमारा मिलना, यूँ साथ चलना
न भाया उन धर्म के ठेकेदारों को
और बंदिशों में जकड़ लिया मेरे प्रेम को।
बैठकर बातें करते थे
जिस पत्थर की चोटी पर
आज वहाँ मंडराते हैं चील और कौंवे।
मैं आ जाती तुम्हारे साथ
क़दम से क़दम मिलाकर चलने को,
आज क़दम ना रहे वो साथ चलने को,
निशान अभी भी बाकी है
साथ चले चार क़दमों के।
तुम चले गए मुझसे बहुत दूर, बहुत दूर
तुम अब लौटकर ना आओगे
इस दुनिया में मिलने मुझसे!
तुम इंतज़ार करना मेरा
मैं जल्दी ही आऊँगी फिर से
तुम्हारे साथ चलने को।
जहाँ कोई बंदिशें नहीं होंगी
जाति-धर्म की।
जाति-धर्म ने हमें दूर कर दिया
तुम्हें मार दिया, मुझे क़ैद कर लिया।
हाथ पाँव में जकड़ी है
जाति-धर्म की ज़ंजीरें
क़ैद हूँ मैं इस काले कमरे में
जहाँ न रोशनी है न साथ है तुम्हारा
बस कुछ साँसें चल रही है
तुम्हारी यादों में, तुम्हारी यादों में।

नीरज सिंह कर्दम - असावर, बुलन्दशहर (उत्तर प्रदेश)

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