डॉ. कुमार विनोद - बांसडीह, बलिया (उत्तर प्रदेश)
खुली हवा में साँस - कविता - डॉ. कुमार विनोद
शुक्रवार, फ़रवरी 05, 2021
खुली हवा में साँस लेने का सुख
उस कबूतर से पूछो
जो पिजड़े में कभी क़ैद न हो।
मुक्त गगन में दम्भ भरता है
उड़ने की कलाबाज़ी दिखाता है
नज़दीक से इंद्रधनुष छूकर
लौटने पर इतराता है।
पर कितना कठिन है
खुशी-खुशी सुहागिनों को
अपनी मांग अपने हाथों पोंछना।
चूड़ियों को बेरहमी से फोड़ना।
कितना आत्म विश्वास, कितना आत्म उत्सर्ग।
गर्जना करना, हुंकार भरना, चल पड़ना।
जैसे स्वराज उनके आँचल और मुट्ठी में हो।
उनकी मांग के सिंदूर से
सूर्य का ताप भी हो जाता था निस्तेज
बढ़ जाती थी लालिमा।
इसीलिए स्वराज के लिए जब-जब टूटती थी बेड़िया
कहा जाता था सुहागिनें
विधवा नहीं, वीरांगना हो जाती थी।
कर देती थी दुश्मन को एकदम पस्त।
और देखते ही देखते हो गया ब्रिटेन का सूर्य
हमेशा-हमेशा के लिए अस्त।
हमेशा चूड़ियों की खनक से
भोर होने का एहसास होता है। और
बेड़ियो की खनक से
ग़ुलामी का पर्दाफाश होता है।
आज़ादी की लड़ाई में सम्मिलित
एक सेनानी के
हैसियत का पता
हमें तब चला जब आकाश की
ओर निर्निमेष पलकों से निहारते हुए
उस सेनानी ने कहा-
यह नीला आकाश लाख चाहे पर
मेरे पीठ पर लगे निशान से गहरा नहीं हो सकता।
सच मानिए
एकसच्चे राष्ट्र भक्त की भी
अंतिम इच्छा यही होती है।
जो भी दुश्मन हो उसका हर समय भरम निकले।
बार-बार जन्म हो और बार-बार दम निकले।
आख़िरी साँस में बस वंदे मातरम् निकले।
क्रांति का बिगुल भी सर्वप्रथम यही से बजा था।
बनी बनाई योजना की भनक लग गई।
अपने अति उत्साह के कारण सुबह
आज़ादी के लिए कुछ देर रुकना पड़ा
हमेशा देश के ही बारे में जिसने सोचा-
कभी नहीं किया किसी का अमंगल।
बड़े गर्व से पूरा देश कहता है
पांडेय मंगल!
पांडेय मंगल!!
पांडेय मंगल!!!
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