सबकी चाह झूठ के पकवान
सच की रोटी खाता कौन है...
लाख दुआएँ बेअसर रह जाती है
किसी के बुलाएँ आता कौन है...
रस्तों पर पड़े रहते हैं टुकड़े दिल के
सो मुसाफ़िर' पर उन्हें उठाता कौन है...
सीधी सी गली में झोपड़ें ग़रीबों के
बिना मतलब के पर जाता कौन है...
छाती कँपकपा जाए, बदन दुखे
ईमानदारी के जल से नहाता कौन है...
किसे चाह नहीं, प्रेम के दो पल मिले
दिल के घर में पर बुलाता कौन है...
चाय की एक प्याली थकान मिटा दे
अपनेपन से मगर पिलाता कौन है...
अँधेरे नफ़रतों के सब मिट जाएँ
पर मोहब्बत के दीप यहाँ जलाता कौन है...
विजय गोदारा गांधी - भादरा (राजस्थान)