प्रेम की दास्ताँ - गीत - प्रशान्त "अरहत"

कहाँ तुम हो अभी, कहाँ हम हैं अभी,
ज़िन्दगी की डगर ये किधर जाएगी?
अनकही जो रही प्रेम की दास्ताँ
मेरे गीतों में ही वो मुखर जाएगी।
वो किताबों के बदले दिलों का बदलना,
लगा जैसे दरिया का सहरा से मिलना।
वो केमिस्ट्री से अपनी केमिस्ट्री का चलना,
मन के सहरा में मेरे वो उपवन का खिलना।
हृदय की अग्नि में प्रेम कुंदन पिघलना,
होके निर्मित उसी से ये जीवन चमकना।
थोड़ा तुम भी तपो, थोड़ा हम भी तपें
साथ तपने से ज़िन्दगी ये निखर जाएँगी।
कहाँ तुम हो अभी, कहाँ हम हैं अभी,
ज़िन्दगी की डगर ये किधर जाएगी?

अब तो अक्सर तुम्हारी ही यादों में खोना,
उन्हीं में है जगना और उन्हीं में है सोना।
एक अरसा हुआ अब मिलो तो सही,
बात मिलकर कभी तुम करो तो सही।
मैं तो सागर हूँ तुम भी नदी तो बनो,
बनकर लहरें ये चुपचाप हलचल सुनो।
थोड़ा तुम भी चलो, थोड़ा हम भी चलें,
साथ चलने से साहिल पे आ जाएगी।
कहाँ तुम हो अभी, कहाँ हम हैं अभी,
ज़िन्दगी की डगर ये किधर जाएगी?
अनकही प्रेम की जो रही दास्ताँ,
मेरे गीतों में ही वो मुखर जाएगी।

प्रशान्त "अरहत" - शाहाबाद, हरदोई (उत्तर प्रदेश)

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