मैं ममता हूँ (भाग ६, अंतिम भाग) - कविता - डॉ. ममता बनर्जी "मंजरी"

(६)
मेरे ही बच्चे फसल खेत में बोते हैं।
ईंटा-पत्थर कोमल कँधों पर ढोते हैं।
आठों घण्टे खटते खूब कारखानों में।
नित्य बहाते सीकर कोयला-खदानों में।
अफ़सर बनकर दफ़्तर की शान बढ़ाते हैं।
सैनिक बन मातृभूमि पर शीश चढ़ाते हैं।
नेता बनकर देश चलाते हैं तन-मन से।
कलाकार बन धन-धान्य कमाते हैं फन से।
रोग-व्याधि हरते हैं कुशल चिकित्सक बन।
करते हैं दिन-रैन लीन होकर पशुपालन।
व्यापार चलाते बन कर कर्मठ व्यापारी।
कभी-कभी खटते हैं बरबस यूँ बेगारी।
वे चोर-उचक्के हत्यारे भी बनते हैं।
हाथों में हथकड़ियाँ भी सतत पहनते हैं।
कोई मूरख बनते हैं तो कोई पण्डित।
कोई आतंकी बन कर होते हैं दण्डित।
हर रूपों में नित सजते हैं मेरे बच्चें।
कोई झूठे होते हैं तो कोई सच्चे।
मैं माता हूँ सबकी परम् सत्य, रुचिता हूँ।
सम्पूर्ण ब्रह्म ही मेरा है- 'मैं ममता हूँ'।।

डॉ. ममता बनर्जी "मंजरी" - गिरिडीह (झारखण्ड)

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