माँ का पल्लू - कविता - प्रीति बौद्ध

माँ तेरे पल्लू का जवाब नहीं, लगता है कमाल।
मैं पानी की बून्द और तेरा ह्रदय है विशाल।।

तेरे पैरों की जुती हूँ माँ, तेरे क़दमों में ही रहती।
जब चलती थी तब पाँवों से उड़ता रहता गुलाल।।

तेरे आँचल में छिप जाने का हरपल ख़्याल रहेगा।
जब जब रोऊँ माँ, तेरा पल्लू बन जाता था रुमाल।।

तुम्हारा पल्लू खाली अकाउंट बैंक सा रहता था।
नहीं चुकाना पड़ता कर्ज़ चाहे कितने हो साल।।

सर्दी में चादर बन जाता, गर्मी में बनता जो पँखा।
माँ का पल्लू मौसम के अनुसार बनाता था हाल।।

छोड़कर जाने तू कहाँ चली, मैं ढूँढू तुझे हर गली।
तुझ बिन अब कौन सँवारे मेरे घने काले बाल।।

तेरे पैरों की पायल, तुझ बिन रहती हरदम घायल।
तुझ बिन सुना जग है, तेरे लाड़ को तरसते गाल।।

प्रीति बौद्ध - फिरोजाबाद (उत्तर प्रदेश)

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