तुम्हारा साथ - कविता - गोपाल मोहन मिश्र

तुम्हारा साथ होता है
बसंत की तरह,
जिसमें मुस्कराती हैं कलियाँ
लहलहाते हैं खेत,
मचलती हैं हवाएँ
इठलाते हैं बादल और
उन्ही में से झाँकता है सूरज...!

तुम्हारा साथ होता है
बारिश की तरह,
जो पुलकित कर देता है
तन-मन को,
एक पल के लिए
इनकी छोटी बूँदों पर
होते हैं हमारे सपने,
जो टूट कर, बिखरकर मिल जाते हैं,
और बनाते है आशाओं की नदियाँ...!

तुम्हारा साथ होता है
बचपन की तरह,
जिसकी हर किलकारी पर
उमड़ पड़ता 'माँ' का मातृत्व,
देखते हैं कौतुहल भरे नेत्रों से
हर किसी के प्यार को,
जो थाम लेना चाहता है
नन्हीं-नन्हीं अँगुलियों से
पूरा का पूरा संसार,
घूम लेना चाहता है
लड़खड़ाते क़दम से
पूरा का पूरा जहाँ,
जिसकी चाँद जैसी मुख-भंगिमा पर मुग्ध हो
हिलोरे लेने लगता है
पूरा का पूरा समुद्र...!

तुम्हारा साथ होता है
झरनों की तरह,
जिससे फिसलकर गिरता है वक़्त
निश्च्छल, कान्त और पवित्र,
जो सिंचित करता है आत्मा को,
मधुर, मलय, शीतलता
उद्धेलित कर जाती तन-मन को...!

तुम्हारा साथ होता है
भावनाओं का सम्प्रेषण,
मुश्किल होता है
जज़्बातों को लफ़्ज़ों में बांधना,
कहाँ है वो
वाक्यों की सुन्दरतम परिसीमा,
जो शब्दों की लड़ियों से
परिभाषित कर सके
हमारे-तुम्हारे साथ को...!

गोपाल मोहन मिश्र - लहेरिया सराय, दरभंगा (बिहार)

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