ख़्वाहिश है बोलता ही रहूँ - कविता - मनोज यादव

ख़्वाहिश है बोलता ही रहूँ।
वहाँ तक, जहाँ तक धरती दम तोड़ती हो।
वहाँ तक, जहाँ तक आकाश का किनारा हो।
वहाँ तक, जहाँ तक किसी को तक़लीफ़ न हो।
वहाँ तक, जहाँ तक किसी की आँखें नम न हो।
वहाँ तक, जहाँ तक सताए हुए लोगों की आवाज़ बनूँ।
वहाँ तक, जहाँ तक तानाशाहो के माथे पर शिकन पड़ जाए।
वहाँ तक, जहाँ तक साहित्य का अंत होता है।
वहाँ तक, जहाँ तक किसानों के खेत है।
वहाँ तक, जहाँ तक जवानों की आत्माएँ रहती हो।
वहाँ तक, जहाँ तक मेरा हलक दम न तोड़ दे।।

ख़्वाहिश है बोलता ही रहूँ यूँ ही बोलता रहूँ।
बून्द से समुंदर तक,
अँधेरे से उजाले तक,
शरीर से राख तक,
बिंदु से अनंत तक,
शुरुआत से अंत तक,
जन्म से मृत्यु तक,
ख़्वाहिश है सिर्फ़ बोलता ही रहूँ और बोलता ही रहूँ।।

मनोज यादव - मजिदहां, समूदपुर, चंदौली (उत्तर प्रदेश)

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