आ गया है बसंत - कविता - जितेन्द्र कुमार

प्रकृति कर ली है श्रृंगार,
सर्वत्र छा गया है बहार,
अवनि है बन-ठन तैयार,
कर रहा रूह को इज़हार,
ठिठुरन का हो गया अंत,
आ गया है बसंत...

मलयानिल-झोंका है लाया,
स्निग्ध स्पर्शों से सिहराया,
कोकिल कुहू तान सुनाया,
सुषुप्त सिम्तों को जगाया,
हर्षित है देखो दिग दिगंत,
आ गया है बसंत...

बह रहा झूम बसंती पवन,
पल्लवित-पुष्पित है चमन,
अखिल संसृति में है अमन,
मादकता छा रही कण-कण,
खेत-पथार है कोमल कंत,
आ गया है बसंत...

मधुऋतु का अनूप समय,
तन-मन हो गए प्रसूनमय,
अमराई में बौर झूल गए,
टेसू, बेल भी निकल गए,
देखो, शर्मा रहा है हेमन्त,
आ गया है बसंत...

मानस पा लिया नई सहर,
उठ रहे उर में असीम लहर,
हरा-भरा हो हर भावी डगर,
गतिमान रहें सदा प्रेम-समर,
आच्छादित रहें सत्य अनंत,
आ गया है बसंत...

जितेन्द्र कुमार - सीतामढ़ी (बिहार)

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