पुराने संस्कार - लघुकथा - समुन्द्र सिंह पंवार

दादी जी के चेहरे की दिनों दिन बढ़ती चमक देख कर सब घर वाले हैरान हैं पर समझ नहीं पा रहे हैं और ना ही पूछने की हिम्मत कर पा रहे हैं। क्योंकि उनकी तुनक मिज़ाजी से सब डरते हैं ज़रा सा कोई मज़ाक में ही छेड़ भर दे फिर देखो कैसे बरस पड़ती हैं।
बरसे भी क्यों ना क्योंकि उनके मन का काम कोई करता ही नहीं। थक गई हैं समझा - समझा कर पर नई पीढी के बच्चे हैं। कहाँ समझते हैं, जमाना कितना बदल भी तो गया है और अगर उसकी ताल में ताल मिलाकर चलना है तो उसके जैसा ही करना होगा। पर ये पुराने लोग तो अपनी तरह से ही रहेंगे। और यही वजह है आपस में मनमुटाव की।

आज की पीढ़ी पुराने लोगों का अनुसरण नहीं करती और करे भी कैसे दोनों की दिनचर्या और रहन-सहन में ज़मीन-आसमान का अंतर जो है। पर छोटी को क्या वो तो अभी छोटी है
तो दादी से पूछ बैठी - दादी-दादी पहले तुम बडी चिड़चिड़ी रहती थी।  पर आज कल बड़ा खुश रहती हो। क्या बात है ?  वो पूछ रही थी और बाकी सदस्य कान लगाकर सुन रहे थे।
इस पर दादी ने कहा - अरे बिटिया बात ऐसी है कि माना कोरोना जैसी विश्व महामारी ने सबको आर्थिक रूप से तोड़कर रख दिया। पर लोगों को परिवार के साथ समय बिताने का मौका भी दिया और सबसे बड़ी बात कि पुराने संस्कार वापस आ गए। जैसे नमस्ते करना, बाहर से आकर जूता चप्पल एक कोने में रखना, हाथ पैर मुँह धोना, कपड़े बदलना आदि।
इसलिए मैं बहुत खुश हूँ।

समुन्द्र सिंह पंवार - रोहतक (हरियाणा)

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