डूबती सभ्यता - कविता - अभिषेक अजनबी

कट रहे वृक्ष पंक्षी किधर जाएँगे।
आसमाँ से ज़मी पर उतर आएँगे।
अब अनारों से छिलके हटाओ नहीं,
दाने दाने निकल कर बिखर जाएँगे।
संस्कृति का हनन जो हुआ इस कदर,
तो हर तरफ बेबसी वाला घर पाएँगे।
पूर्वजों की निधि देख लूटते हुए,
स्वर्ग में संत अपने सिहर जाएँगे।
देखकर रीतियां नीतियां यह नई,
हर बुजुर्गों के आँसू उतर जाएँगे।
कट रहे वृक्ष......

बहते बादल बुलाना ज़रूरी नहीं।
रूप सबको दिखाना ज़रूरी नहीं। 
हुस्न का है किला नाम तेरे भले ,
इस किले को ढहाना ज़रूरी नहीं।
जो कहानी यहाँ जानकी जी रची,
यार उसको भूलना ज़रूरी नहीं।
तेरे पहनावे से कुछ ना परहेज़ है,
बस बदन को दिखाना ज़रूरी नहीं।
इस तरह आवरण को हटाओ नहीं।
है विपुल संपदा जो दिखाओ नहीं।
जो सदा से बना है नज़र के लिए,
दीप है आचरण का बुझाओ नहीं।
भारतीय धर्म के योग्य जो है लिखा,
अब उसे आजकल में मिटाओ नहीं 
नैन पर नींद का बोझ हलका रखो,
ख़्वाब में भूलकर घर लुटाओ नहीं।
गर विषैली फिज़ा से ना दूरी हुई,
फिर कहीं पर नहीं हम बसर पाएँगे।
कट रहे वृक्ष पंक्षी......

अभिषेक अजनबी - आजमगढ़ (उत्तर प्रदेश)

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