श्वास अब भी चल रही है - कविता - प्रदीप कुमार कौशिक

श्वास अब भी चल रही है!
वक़्त से विरक्त हो कर,
शुभ - अशुभ हर भाव ढो कर 
तुम रुके पर वह सतत है,
"दैव" की रचना अकथ है 
निशा के ही बाद दिन है,
क्या लिखा कहना कठिन है?
कंटकों को फूल समझो, 
हो गई जो भूल - समझो!
भूल का है सुधार संभव,
मार्ग का है चुनाव संभव 
तुम नहीं खुद की हो रचना,
फिर तुम्हें अधिकार क्या है?
खुद के प्राणों के हो मालिक,
किस वसीयत में लिखा है?
प्राणदाता - बस विधाता,
और हंता भी वही है
नियति के लिखे को पलटे,
किसने यह क्षमता गही है 
प्राण दे कर भी न मुक्ति,
भटकना ही दैव होगा 
यहाँ फिर संभव सृजन था,
वहाँ कुछ न शेष होगा 
भाग्य क्या? पुरुषार्थ ही है।
और वह ही देवता है 
मनुज ने पुरुषार्थ के बल,
कौन सा फल ना चखा है 
सब तुम्हारे पक्ष होंगे,
हाथ अपना तो बढ़ाओ
मन की ग्रन्थि खोल फेंको,
साथी को साझी बनाओ 
तम निराशा का परे कर,
प्राची से उगता दिवाकर 
स्वर्ण मुद्रित रश्मियों से,
काली कलिमा गल रही है 
श्वास अब भी चल रही है!
श्वास अब भी चल रही है!

प्रदीप कुमार कौशिक - बीकानेर (राजस्थान)

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