आओ दोस्त, तुम्हें बेहतर बनाते हैं।
कलम के जादू से, तुम्हें सजाते हैं।
जाना तुझे जो, चन्द मुलाक़ातों से।
नाम तेरा सब, शब्द "बताते हैं।
तुझे भी जाना है।
तेरे हर रूप को पहचाना है।
तुम तो हो पानी से तरल।
हर आकार में जाते हो ढल।
चाहती हूँ, मोती सा बना के तुम्हें सजाऊँ।
पिरो के काव्यमाला में कविता बनाऊँ।
चाहो तो, प्रेममग्न प्रेमी का गीत बनाऊँ।
या वियोग में डूबा, बिरहा का गीत गाऊँ।
कहो तो, ममता से भीगे गीत सुनाऊँ।
बनाकर लोरी, तुम्हें गुनगुनाऊँ।
दोस्त! तेरे रूप को, तुच्छ नहीं बनाऊँगी।
जिस रूप में चाहोगे, उसी में सजाऊँगी।
मैं जानती हूँ,
तुम ज्ञान में हो।
तुम विज्ञान में हो।
तुम गीता में हो।
तुम क़ुरान में हो।
चाहत है, तेरे रूप को महान बनाऊँ।
प्रभु चरणों में तुम्हें चढ़ाऊँ।
मीरा सा कोई गीत गाऊँ।
प्रतिभा त्रिपाठी - झांसी (मध्य प्रदेश)