ख़ुद से ख़ुद का प्रश्न - कविता - विनय विश्वा

मैं कौन हूँ, कैसा हूँ, क्यों हूँ?
ये कौन पूछ रही है!
किसका, किससे प्रश्न है? 
मन से, अंतर्तम से या
फिर स्व शरीर से!
किसका किससे!
ये कौन प्रश्न कर रहा है!
अंतर्मन में द्वन्द्व है
किसका किससे!
श्वास़ों का मन से या
अस्थिपंजर का धमनीयों, शिराओं, मांसपेशीयों से!
किसका! किससे अंतर्द्वंद्व
मन में है बहुत सारे प्रश्न।
असंख्य तारे, ग्रह, नक्षत्र, उल्कापिंडों
सृष्टि के कण-कण में है कौन?
कहाँ, कैसे असंख्य सवाल है मन में!
अंतर्मन या सिर्फ मन, बाह्य मन या अंत:चेतन
क्या है ये!
कौन लिखता है! कौन सोचता है!
किसके लिए किससे करती है बातें।
स्व से या समाज से
जो बाह्य पिंडों के नरमुंड दिखते हैं
क्यों नहीं एक से आपस में मिलते हैं।
सबकी धमनीयों में एक ही रक्त-प्रवाह
फिर ऐसा क्यों!
ऊँच-नीच, जात-पात स्व की महत्त्वकांक्षा
बन बैठे हैं अपनी ही समूल नाशक
प्रश्न करने वाला भी मैं उत्तर देने वाला भी मैं।
ख़ुद का निर्माण करो
ख़ुद का अवतार बनों
कर्म का ही भागी हो
भगवान ना, तू ज्ञानी हो।
क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा
पंचतत्व ये अधम शरीरा।
सूर्य, चंद्र का तेज है तुममे
अग्नि, नीर का स्वेद है तुझमें।
अपना भाग्य बदल सकता है
सूर्य का सा चमक सकता है
हर दिन सूर्य उगता है प्रकृति कर्मरत होती है
तू भी चला-चल, चल-चला, चल
रूक ना कभी जीवन संग्राम में
बढ़ते जाओ कर्म पथ में।

विनय विश्वा - कैमूर, भभुआ (बिहार)

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