सपनों की कहानी - कविता - वैभव गिरि

मानव जीवन चंचल मन है,
ख़ुद को यूँ ही छलता है।
जैसे बारिश की बूंदे झम झम कर, 
धरती पर अविरल बहता है।
बहते पानी के लहरों से,
सारे अरमां बह जाते हैं।
फिर नभ और तारे ही केवल,
अपने घर रह जाते हैं।

छिप छिप कर अश्क बहाने वालों पर ,
ये सारी दुनिया हँसती है।
जैसे उसकी आँखों और मुस्कानों पर ,
ये सारी दुनिया मरती है।
तुम क्या जानो ये जिल्द नई है,
पर ये किताब पुरानी थी।
कुछ सपनों से सजी हुई,
अपनी भी कोई कहानी थी।

कुछ सपनो के मर जाने से,
जीवन यूँ रुक जाता है।
जैसे बादल आ जाने से,
चाँद कहीं छिप जाता है।
बारिश हुई कश्ती डूबी किंतु,
पनघट पर पहल पुरानी है।
नई उम्मीदों से सजी हुई,
कुछ सपनो की कहानी है।

वैभव गिरि - विशेश्वरगंज, बहराइच (उत्तर प्रदेश)

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