रोटी, कपड़ा और मकान - कविता - रीमा सिन्हा

मख़मली पर्दों के पीछे भी एक और जहान है,
रो रहे हैं सब वहाँ, न रोटी कपड़ा और मकान है।
रूधिर जिनके सूख गये, पीते हलाहल हर रोज़ हैं,
शर क्या भेदेगी उन्हें, उदर क्षुधा मिटाने को सहते शब्दवाण हैं।

तिमिरमय है जग इनका, सोना जागना एक सामान है,
स्वराज से परे हैं ये, एक निवाले में सिमटा जीवन गान है।
अट्टलिकाओं में रहने वालों क्या जानो तुम इनका मर्म?
तन ढंकने को वसन नहीं, रहने को न मकान है।

भूख से बिलख रहे हैं बच्चे, सूखी छाती माँ दूध पिलाये कैसे?
सम्पन्न समाज मगन है ख़ुद में, मदद के लिये आगे आये कैसे?
क्यों नहीं समझते हैं लोग इसे, जो दया धर्म के साथ आगे आएँगे,
जीवन होगा सुखद और वे ही यश पाएँगे।

निज घरों में बैठकर, ए सी, हीटर चालू कर, नहीं सम्पन्न कहलाओगे,
जिस दिन होगा देश खुशहाल, सच्ची खुशी तुम पाओगे।
होश आएगा तब तुम्हें, जब महावज्र टूटेगा,
दीनों की हाय से घर तुम्हारा भी टूटेगा।

रीमा सिन्हा - लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

Instagram पर जुड़ें



साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिए साहित्य से जुड़ी Videos