मुसाफ़िर - ग़ज़ल - अज़हर अली इमरोज़

क्यों मिलने की बन्दिश में रहते हैं,
हम तिलस्म के लरजिश में रहते हैं।

ना जाने कितनों ने घेरा मुझको 
अब तो खुद की गर्दिश में रहते हैं।

सैंयारों के दुनिया में रहता हूँ 
सोचो कैसी वर्जिश में रहते हैं।

ये मुश्किल आसान कहाँ होती है
जितना की खुद रञ्जिश में रहते हैं।

देखो तो इब्ने आदम हैं हम तुम
इंसाँ खुद क्यों सहरिश में रहते हैं।

भाषाओं की दुनियाएँ देखी है
क्यों सब के सब इंग्लिश में रहते हैं।

मजबूरों की मजबूरी है अज़हर 
हर कोई जो मुर्शिद में रहते हैं।

अज़हर अली इमरोज़ - दरभंगा (बिहार)

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