पत्थरों का ढ़ेर - कविता - पारो शैवलिनी

मेरी आत्मा!
धिक्कारती है मुझे।
कहती है, क्यों सींचता है तू
इस जमीन को।
इससे तुझे कुछ नहीं मिलेगा।
क्योंकि, यहाँ मात्र
पत्थरों का ढ़ेर है।
प्रत्युत्तर में, मेरा शरीर!
धिक्कारता है मेरी आत्मा को।
पूछता है, पत्थरों का ढ़ेर 
क्या ज्यादा ठोस है इन भुजाओं से?
निस्तबधता - पूरे वातावरण में।
शायद - शरीर की बात 
आत्मा को भा गई। 
निश्चित पत्थरों का ढ़ेर 
ज्यादा ठोस हो ही नहीं सकता
इन भुजाओं से, क्योंकि -
वह टूट सकता है
टूटकर चूर हो सकता है
इन भुजाओं से।

पारो शैवलिनी - चितरंजन (पश्चिम बंगाल)

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