(३)
हर युग में मैं अवतरण धरा पे लेती हूँ।
मातृ रूप धारण कर कर्त्तव्य निभाती हूँ।
मैं रचती हूँ नव कथा-कहानी इस जग में,
स्नेह-दीप बनकर जलती रहती हूँ मग में।
रक्त-पात हो इस मग में या हो स्नेह-मिलन,
शूल-फूल दोनों से भर जाता मेरा तन।
विजय-पराजय चाहे जिसकी भी होती है।
अश्रु-धार मुझको ही सदैव भिंगोती है।
कोख कलंकित हर युग में मेरा होता है।
हृदय पटल मेरा दर्द भयानक ढोता है।
मैं राम और रावण दोनों की छाया हूँ।
मैं ही इस दुनिया की त्रिगुणात्मक माया हूँ।
मेरे अपने मुझे सदा सुख-दुख देते हैं।
युग-युग से मेरी अग्नि परीक्षा लेते हैं।
पाँचों उंगलियों में रखती मैं समता हूँ।
सम्पूर्ण ब्रह्म ही मेरा है- 'मैं ममता हूँ'।।
डॉ. ममता बनर्जी "मंजरी" - गिरिडीह (झारखण्ड)