माँ - कविता - मंजु यादव "ग्रामीण"

आज कलम कुछ आतुर सी है,
माँ क्या है बतलाने को।
अक्षर के कुछ मोती लायी,
कागज पर बिखराने को।
अंतःकरण मचल उठा है,
मै भी बाहर आ जाऊँ।
श्रध्दा के कुछ फूलों से,
माँ का मान बढ़ा आऊँ।
इच्छा मात्र से ही ईश्वर की,
ये सृष्टि रच जाती है,
तुझे बनाने की ख़ातिर ,
माँ अपना लहू लगाती है।
जितनी पीड़ा माँ को हुई,
तुझे इस जग में लाने में।
ब्रह्मदेव को हुई ना होगी,
सारी सृष्टि रचाने में।
ख़ुद पीती पानी चाहे,
अमृत तुझे पिलाती है।
अपने सीने में गंगा यमुना,
दोनों भर भर लाती है।
गिर गिर कर उठना तुझको,
माँ ही तो सिखलाती है।
जब तू चलना सीख रहा हो,
राहों पलक बिछाती है।
माँ के पावन चरणों मे,
शत शत बार नमन मेरा।
जग को जीवन देने वाली,
ह्रदय करे वन्दन तेरा।।

मंजु यादव "ग्रामीण" - आगरा (उत्तर प्रदेश)

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