क्या तुम मेरे हो - कविता - प्रवीण श्रीवास्तव

सर्वस्व त्याग किया मैंने,
प्रेम भी, दुख भी, और वह अहसास भी 
जो कभी मन में था 
कि तुम मेरे हो, तुम मेरे हो।
जीवन मे तुम्हारे आने पर 
कितने सपने सजाए थे।
तुम मेरे हो या मेरे नही हो,
कई बार आजमाए थे।
पर अब सब छोड़ दिया मैंने,
राग भी, द्वेष भी, ओर वह गर्व भी 
जो तुमसे मिल कर होता था 
कि तुम मेरे हो, तुम मेरे हो।
तुमसे मिल के मेरा जीवन,
दिव्य ज्योति स्वरूप था।
सर्वस्व मिला था एक पल ही 
जैसे मैं भूप स्वरूप था।
वक़्त ने छीन लिया सब एक पल ही 
जलन भी, चिढ़ भी औऱ वह अधिकार भी,
जो दिए थे तुमने मुझको प्यार से 
कि तुम मेरे हो, तुम मेरे हो।
अब मेरा जीवन पतझड़ रूपी,
वन के समान है।
जल सूख चुका जैसे तटिनी का,
बिना तीर के कमान है।
सब त्याग दिया मैंने एक पल ही 
मान भी, स्वाभिमान भी, और गुमान भी 
जो होता था तुम्हारे साथ ही चल कर 
कि तुम मेरे हो, तुम मेरे हो।
दिल कहता है आज रो रो कर 
तुमसे ओर ज़माने से।
तुम तो गए अपना जीवन बनाने 
क्यों हुए हमसे बेगाने से।
मिथ्या था क्या वह सब कुछ 
बातें भी मिथ्या, प्रेम भी मिथ्या,
मिथ्या था वह जीवन भी,
क्यों लगा गए प्रश्न चिन्ह प्रेम पर,
क्या सच में तुम मेरे थे?
क्या सच मे तुम मेरे थे?

प्रवीण श्रीवास्तव - करैरा, शिवपुरी (मध्यप्रदेश)

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