क़लमकार फिर भी लिखता है - कविता - विजय गोदारा गांधी

हर बाज़ार, रहे खाली हाथ,
तब पता चला सच कब बिकता है।

सो कोशिशें बेकार गई,
नसीब से ज़्यादा किसे मिलता है।

मेरी तस्वीर में सूरत उनकी,
आईना भी धोखा सा लगता है।

अपनों का सताया होगा,
सफ़र में रुक-रुक के चलता है।

अर्श से सीधा फर्श पर,
वक़्त का पहिया जब हिलता है।

ख़ंजर लिए लोग खड़े है,
क़लमकार फिर भी लिखता है।

विजय गोदारा गांधी - भादरा (राजस्थान)

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