प्रवीन "पथिक" - बलिया (उत्तर प्रदेश)
धन्य हे उपवन - कविता - प्रवीन "पथिक"
सोमवार, फ़रवरी 01, 2021
माफ़ करना तू हे उपवन!
तुझको कितना ठुकराया था।
तेरा बसना-वसंत छोड़,
पतझड़ को ही अपनाया था।
इसमें न कोई मेरा क़सूर,
दुनिया का दस्तूर यही है।
सत्य का मार्ग कठिन जान,
ज़िन्दगी हाथों मजबूर हुई है।
हर-क्षण सच्चाई से दूर रहा,
पग-पग पर मिली सफलता थी।
यही ख़ुदा का संकेत मान,
चेहरे पे खिली चपलता थी।
खुशी भी थी, ग़म भी रहता,
हर क्षण हृदय डरता रहता।
पता नहीं, ये क्यों होता,
फिर भी गलती करता रहता।
सुना था ईश्वर बिन तो,
इक भी पत्ता, न हिलता है।
ना ही उनकी कृपा हुए,
किसी को भी कुछ मिलता है।
पर! हर पल खुशी ही मिलती,
कभी न मैं मँझधार फँसा।
यही ख़ुदा तूने धोखा दिया,
बिन कश्ती के पतवार हँसा।
क्यों तूने अब तक रोका नहीं,
गलत रास्ते पर टोका नहीं।
ये कैसे कहूँ धोखेबाजी नहीं,
या कैसे कहूँ, ये धोखा नहीं।
अब तक कितनी बुराइयों का,
मैंने है आत्मसात किया।
बुराई के मनभावन राहों पर,
सबकुछ अपना बर्बाद किया।
बुराई के पश्चाताप की अग्नि,
मुझको कभी भड़काती थी।
कई प्रश्न उठते हृदय में,
पर उत्तर नहीं दे पाती थी।
पर! आज तेरा साक्षात्कार हुआ,
सब बात समझ में आईं है।
तूने इसका रहस्य खोल,
दिल को राहत पहुँचाई है।
तुलसी का भी ऐसा मत था,
अब लौ नसानी, अब न नसैहों।
अब आज समझ में आया है,
बढ़ा के कदम जग नीचे गिरैहों।
धन्य हे उपवन! तेरा विचार,
जो मुझपर ये उपकार किया।
बचा के बुराई के पथ से,
हाँ, मेरा जीवन सँवार दिया।
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