लगी आग नफ़रत की ऐसी - ग़ज़ल - मोहम्मद मुमताज़ हसन

मैं जब भी पुराना मकान देखता हूँ।
थोड़ी बहुत ख़ुद में जान देखता हूँ।

लड़ाई वजूद की वजूद तक आई,
ख़ुदा का यह भी इम्तिहान देखता हूँ।

उजड़ गया आपस के झगड़े में घर,
गली-कूचे में नया मकान देखता हूँ।

तल्ख़ लहज़े में टूट गई रिश्तों की डोर,
दीवारें आँगन के दरमियान देखता हूँ।

लगी आग नफ़रत की ऐसी जहाँ में, 
हर शख़्स हुआ परेशान देखता हूँ।

ज़ख्म गहरा दिया था भर गया लेकिन,
सरे-पेशानी पे मेरे निशान देखता हूँ।

किसी सूरत ज़मीर का सौदा नहीं किया,
मेरे ईमान से रौशन मेरा जहान देखता हूँ।

मोहम्मद मुमताज़ हसन - रिकाबगंज, टिकारी, गया (बिहार)

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