संस्कार और संस्कृति - लेख - सुधीर श्रीवास्तव

कहने के लिए तो ये दो मात्र साढ़े तीन अक्षरों वाले शब्द मात्र हैं परंतु इनकी गहराई और व्यापकता बहुत उच्च भाव का प्रकटीकरण करती है।
हमें हमारे पुरखों से जो संस्कार और संस्कृतियों का सुंदर समन्वय प्राप्त हुआ था वह आज धीरे लुप्त हो रहा है।कहना गलत न होगा कि आज हम अपनी ही संस्कृति से दूर होते जा रहे हैं।

हमारे अंदर के संस्कार आधुनिकता की बलिबेदी पर दम तोड़ते जा रहा हैं। जिसका दुष्परिणाम हम सब महसूस भी करते हैं मगर उससे खुद ही नहीं बच रहे हैं या यूँ कहें कि सारा आरोप दूसरों पर लगाकर खुद पाखंडी बन गर्व महसूस कर रहे हैं। पहले के समय में प्यार दुलार के साथ साथ रिश्तों के बीच संस्कारों, मर्यादाओं की पतली रेखा होने के बाद भी वह मिटती नहीं थी। आज उसे हम आधुनिक संस्कृति के नाम पर ठोकर मारकर आगे बढ़ते ही नहीं जा रहे हैं बल्कि गर्व भी महसूस करते हैं।

मै अपना उदाहरण देता हूँ कि 51 वर्ष का होकर भी मेरी हिम्मत आज भी बड़े पिताजी के सामने या साथ बैठने में संकोच लगता है। (आपको बता दूँ कि मेरे पिताजी की मृत्यु बीस वर्ष पूर्व हो चुकी है। वैसे भी मुझे पिताजी के साथ रहने का अवसर बहुत कम ही मिला।)

मैं यह तो नहीं कह सकता कि इतना संकोच उचित है, लेकिन आज के माहौल/समय में सिर्फ अपने घर परिवार और रिश्तेदारों के मध्य झाँककर देखिए और महसूस कीजिये। खुद जानकर हैरान हो जायेंगे कि आज किसमें कितना संस्कार शेष है, किसे संस्कृति की परवाह है। क्या इसे ही संस्कृति और संस्कार कहेंगे कि समय के साथ पुरुषों के शरीर पर कपड़े बढ़ रहे हैं महिलाओं केउतने ही कम हो रहे हैं। अपने ही बच्चे माँ बाप की उपेक्षा, प्रताड़ना से नहीं चूक रहे है। सास, ससुर, जेठ, जेठानी, देवर, देवरानी, भाई भाभीया अन्य रिश्तों के मध्य कितना संस्कार शेष बचा है कहना जरूरी नहीं है। क्या इसी संस्कृति के दंभ का शिकार आज हम नहीं हो रहे हैं या आगे नहीं होंगे। कौन गारंटी ले सकता है।
इस पर आप जितनी भी चर्चा कर लो, जितने भी भाषण, व्याख्यान देते रहो, कुछ नहीं होने वाला।

यदि हम चाहते हैं कि समारी संस्कृति और हमारे संस्कार जिंदा रहें तो शुरुआत खुद से खुद के साथ से ही करनी होगी अन्यथा वह दिन दूर नहीं (मेरे पड़ोस में दो सगे भाइयों ने मिलकर जीवित पिता का मृत्यु प्रमाण पत्र बनवाकर मकान बेंचने की असफल कोशिश की) जब धन के लालच में माँ बाप को मार डालने या जीते जी मृत्यु प्रमाण पत्र बनवा लेने जैसी घटनाएं, जो आज अपवाद हैं, आम बात बन कर रह जायेंगी और किसी को किसी पर विश्वास नहीं हो सकेगा। तब हम, हमारेपरिवार समाज और राष्ट्र का क्या हाल होगा? सोचकर भी डर लगता है।

सुधीर श्रीवास्तव - बड़गाँव, गोण्डा (उत्तर प्रदेश)

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