वाह रे इंसान अब तो हद ही हो गई ।
अपनी औरत के आगे माँ रद्द हो गई।।
सीचा था जिसने छाती का दूध पिलाकर।
आज पानी के लिए भी मोहताज हो गई।।
बड़े कष्ट उठाकर उसने तुझको पाला।
अपने मुहँ का निवाला तुझे खिलाया।।
आज भूल गया तू सभी बचपन के दिन।
माँ पचपन से ऊपर बैठी है रोटी के बिन।।
पत्नी को तू आज हम दर्द समझता।
और अपनी माँ को सिरदर्द समझता।।
पत्नी को बना रखा है घर का सरताज।
और माँ हो रही दो रोटी को मोहताज।।
वाह रे इंसान... वाह रे इंसान...
गणपत लाल उदय - अजमेर (राजस्थान)