पी रहा हूँ मधु अभी मैं - कविता - राम प्रसाद आर्य

पी रहा हूँ मधु अभी मैं,  
कभी मुझको ये पीएगी।  
पीकेे इसको जी रहा मैं, 
कभी पी मुझे ये जिएगी।। 

मानो गर इसको दवा, तो ये दवा है , 
मानो दारू गर, तो ये जाने-गवां है। 
मैं तो मधु को मधु समझकर पी रहा हूँ,
हमसफर, हमदर्द मधु संग जी रहा हूँ।। 

मेरे लिए तो दारू भी, औ दवा भी ये, 
साँस लेने भर जरूरी हवा भी ये। 
मेरे लिए तो बीमारी भी, डाक्टर भी है यही, 
ज़िन्दगी की जड़, बहाना मौत भी तो बस यही।। 

ज़माने से मिली जब भी ठोकरें, 
मधु ने उठाया और उर से है लगाया।
जाम मधु पी-पी हँसा, बतियाया स्वयं से, 
रंज, ग़म, मधु मोद में खुद का भुलाया।। 

हैवानियत के नग्न नृत्य को देखकर,
बेचैन मन ये मनचला अब ऊबने लगा।
बावरा मजबूर, बेबश सा "रमेश",
आके मधु आग़ोश, मधु-नद डूबने लगा।।  

मधु ही मेरी भूख है, औ प्यास है, 
मधु ही जीवन आस और विश्वास है। 
मधु है जब तक तन में मेरे स्वांस है, 
मधु से निकट नहीं कोई रिश्ता ख़ास है।। 

मधु से मिले बिन चैन अब मुझे ना मिले,
कसम मधु, मधु बिन तनिक पग जो मेरे हिले। 
ज़ख्म जब भी ज़माने से मुझको मिले, 
मधु ने निज मादक स्पर्श तत्क्षण सिले।। 

मधु ही माँ, भगिनी, औ जीवन संगिनी अब,
मधु ही साथी, साथ मधु बस मृत्यु तक। 
जहाँ मधु मिल जाये घर मेरा वही, 
मधु बिना अंदाज़ नहीं मुझे, क्या गलत औ क्या सही।। 

मधु पान मजबूरी नहीं मेरी, न मेरा शौक़ है, 
किन्तु मधु ने ही उतारी नाव जब मंजधार में। 
तो बताओ, कैसे तज दूँ साथ अब मधु अन्त में, 
मतलबी, स्वार्थी, फ़रेबी, कहलाओं क्यों संसार में।।

राम प्रसाद आर्य "रमेश" - जनपद, चम्पावत (उत्तराखण्ड)

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