पथिक हूँ मैं - कविता - डॉ. विजय पंडित

अनंत अज्ञात
या शायद
स्वयं की खोज में हूँ
हाँ... पथिक हूँ मैं।


सत्य असत्य
राहें अनजानी
मरूस्थल के हिरण सा
मरीचिका दौड़ाती
राह भटकाती।



लहरों के विपरीत
चलता
अनगिनत रंगो को
प्रकृति में भरने
का प्रयास करता
हाँ... पथिक हूँ मैं।


अनेक अनुत्तरित प्रश्नों
उलझनों के बीच


अनबूझे प्रश्नों के
उत्तर तलाशता हूँ मैं
हाँ... पथिक हूँ मैं।


प्यास से बेहाल
लेकिन
पानी पर तश्वीर
बनाता हूँ मैं।


पथरीली जीवन की राहों की
पहेलियों के हल तलाशता
अपूर्णता में पूर्णता
पूर्णता में संपूर्णता खोजता
हाँ... पथिक हूँ मैं।


नदियों में सागर
सागर में नदियों को खोजता
राह दिखाते
सूरज चाँद सितारे।


असंभव को संभव
बनाने में
हमेशा से अभ्यस्त
हाँ... पथिक हूँ मैं।


आकाशगंगा के भी पार
एक रूहानी दुनियां
तलाशता
शायद
स्वयं में ही व्यस्त हूँ मैं...
हाँ... पथिक हूँ मैं।


डॉ. विजय पंडित - मेरठ (उत्तर प्रदेश)


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