एहसासों की पोटली - कविता - डॉ. राजकुमारी

हाँ माँ तुम बहुत याद
आती हो
जब हाथ जलता कुकर से
या मुड़ती हैं उंगली,
गैस ब्रनर से ब्रन होकर भी
नहीं चीखती,
बस एक नन्हीं रा सी आह..
जिसे निगल लेती है मेरी ख़ामोश,


क्यों कि पीड़ा पर रिएक्शन नहीं
मिलता।
सुनो, माँ अब मैं कितनी भी
जल जाऊं तो भी
चीखती तक नहीं हूँ ,
पी लेती हूँ वेदना सिप-सिप
फ़ैला लेती हूँ होंठ
खुश दिखने का नाटक करने को,


माँ शायद मैं, तू कहती थी
उससे भी बड़ी हो गयी हूँ।
जब-जब परेशान होती हूँ
तो तन्हा ही रोती हूँ ,
सहानुभूति को कंधा नहीं ढूंढती।
अब ना गोद तेरी है और ना
हाथ तेरा है, जो पोंछे आँसू।


हाँ माँ, मैंने मनचाही चीजों को
माँगना, मन मारना भी सीख लिया,
अपनी हँसी दबाना भी सीख लिया हैं
शिकायतों की तो बात ही छोड़ो माँ,
बस बाकी है एहसासों की पोटली
तेरे जाने के बाद।


तेरे जाने के बाद माँ मैंने
मर-मर कर जीना भी सीख लिया है,
क्या जरूरत थी माँ, मुझे इतना बड़ा
करके छोड़ जाने की?
हाँ, माँ तेरी बहुत याद आती है
बहुत बहुत बहुत ही रुलाती है।


डॉ. राजकुमारी - नई दिल्ली


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