मिहिर! अथ कथा सुनाओ (भाग १७) - कविता - डॉ. ममता बनर्जी "मंजरी"

(१७)
बोले प्रिय दिनमान, मौन यूँ रह के पल भर।
क्रांति हुई अवसान, यहाँ न काल-कालान्तर।
ईस्ट इंडिया ताज, हटी भारत माटी से।
चल पड़ी ब्रिटिश राज, दिनोंदिन परिपाटी से।।


यूँ था पड़ा अशांत, वनांचल क्षेत्र भयानक।
उजड़ चुकी थी प्रांत, ठगे से थे जन नायक।
खुद पर प्रथम लगाम, लगाए तत्पर नेता।
सुधारवादी संग्राम, चला कर बने विजेता।।


अत्याचार विरोध, लगे करने रह-रह कर।
किए नहीं अवरोध, मार्ग अब हुंकारे भर।
छीनी गई जमीन, वापसी की दी अरजी।
शासक चरित विहीन, मगर करते मन मरज़ी।।


सबकी सुनी दलील, मिशन संचालक भरसक।
धर्मांतरण अपील, किए पूरे कर मकसद।
मुफ्त चिकित्सा संग, मुफ्त शिक्षा की आशा।
लेकर आई रंग, कटी थी घोर निराशा।।


स्थानीय जमींदार, गलाने दाल न पाए।
मिशनरियों पर वार, किए विरोध जतलाए।
सुध-बुध ली सरकार, शुरू की न्याय दिलाना।
रिकार्ड ऑफ राइट्स, शुरू की सतत बनाना।।


फिर क्या हुआ दिनेश, बात विस्तृत बतलाओ।
कथा करो मत शेष, क्रमागत कहते जाओ।
सफल हुए सरदार? या नहीं हमें बताओ।
ममता करे गुहार, मिहिर! अथ कथा सुनाओ।।


डॉ. ममता बनर्जी "मंजरी" - गिरिडीह (झारखण्ड)


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