बेबस जनता - कविता - श्रवण निर्वाण

सिहांसन की लड़ाई यूँ ही सदियों से चलती रही
जनता सदा पिसती गई, ऐसे ही "नारे" रटती रही।
कुनबे बंटे, कुछ के गात कटे फिर भी रुके नहीं  
हुआ मानमर्दन बहुत, शीश कटे पर झुके नहीं।

बेबस जनता सदा तरसी इन्हीं ख़ास गलियारों में
बहुत सी साँसे टूटी मातम छाया था अंधियारों में।
फर्क नहीं है, रत्ती भर आज भी है ऐसा ही मंजर
कड़वाहट भरे बोल अब  नजरों में दिखता खंजर।

लोकतंत्र पर्व पर ये कहते आपकी खूब करेंगे सेवा
राजधर्म था प्रजा की सेवा पर लूटते हैं ये खूब मेवा।
लगता है, अब भी राजशाही की ही रीत चल रही है
लोगों की जिंदगी अब भी अभावों में ही कट रही है।

विद्वानों ने जिन्दगी खपा दी क्रान्तिकारी बदलावों में
अभिशप्त और पुरष्कृत का खेल है अब फिजाओं में।
बंटे हुए  लोग यहाँ करते नामदारों पर जान न्यौछावर
अबोध जनता हो गई है शिकार बन गई अब पैरोकार।

नहीं सामर्थ्य सच कहने का, नहीं समर्थन, झूठा वन्दन!
राष्ट्र को लूटने के देखो कैसे कैसे बन रहे हैं, गठबन्धन।
यह कैसी हवा चली है लोग बंटे हैं, गजब "शब्दो में बंधे"
जनता के बंटाधार से ही चलते है, राजदारों के ये धंधे।

श्रवण निर्वाण - भादरा, हनुमानगढ़ (राजस्थान)

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