कुहासा - कविता - सुधीर श्रीवास्तव

क्या कहूँ?
मेरी जीवन में तो
हमेशा ही छाया रहता है,
बेबसी, लाचारी, भूख का
कभी न मिटने वाला कुहासा।
औरों का तो छंट भी जाता है
मौसमी कुहासा,
पर मेरा कुहासा तो
छँटने का नाम ही नहीं लेता।
ऐसा लगता है
ये कुहासा भी जैसे
ज़िदकिये बैठा है,
जो आया है मेरे जन्म के साथ
और पूरी निष्ठा से मेरे साथ
यारी निभा रहा है,
जैसे प्रतीक्षा कर रहा है
मेरे अंत के साथ ही छँटने की।


सुधीर श्रीवास्तव - बड़गाँव, गोण्डा (उत्तर प्रदेश)


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