खट्टी मीठी बरस बीस की यादें - कविता - कानाराम पारीक "कल्याण"

उत्तर दिशा से हवाएँ चली,
वुहान शहर को झकझोर के।
हाहाकार मची इस धरा पर,
मातमी मंज़र, दिन बुरे दौर के।

भयकारी आलम पसर गया,
मानव अपने घर में बंद हुआ।
एक-दूजे के बीच बनी दूरियाँ,
विश्वास निज हाथों का बंद हुआ।

कई महाशक्तियों घुटनों के बल,
कोरोना का तांडव हर देश में।
मानव हुआ लाचार कालचक्र से,
प्रकृति दे रहीं परिणाम इस वेश में।

जो जहाँ था, वहीं पर क़ैद हुआ,
अपनों से दूर वह बेकार हुआ।
कोसों फ़ासले पैदल ही चलकर,
घर वापसी को लाचार हुआ।

कुछ बीच राह में दम तोड़ गए,
भूखें प्यासे बुरे उनके हाल हुए।
बर्बरताई पुलिस की लाठी खाकर,
एक बार नहीं, सौ बार हलाल हुए।

दो वक़्त की रोजी रोटी छोड़,
कई जन सदा बेरोज़गार हुए।
अपना जीवन बचाने के लिए,
कारोबार छोड़कर निराधार हुए।

बे-मौत कई मौत के शिकार हुए,
दिल दहलाती बीस की ये बातें।
ताउम्र कोई ना भूल पाएगा,
खट्टी-मीठी बरस बीस की यादें।

नव वर्ष इक्कीस का आग़ाज़ हो,
संकट मिट सुख के दिन आए।
नए सूरज की नई किरण हो,
उमंग भरी खुशियाँ मन भाए।

कानाराम पारीक "कल्याण" - साँचौर, जालोर (राजस्थान)

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