ठंड की बहार का सिंगार भी अजीब है ।
शीत की जवानी का ख़ुमार भी अजीब है ।
क्या हुआ हवा को जो सर्द में बहक गयी ।
संदली बदन के पोर पोर सा महक गयी ।
इस गुलाबी रुत का संस्कार भी अजीब है ।
ठंड की बहार का सिंगार भी अजीब है ।
धुँधली सी याद कोई शून्य में उभर रही ।
कौन है जो कल्पना में स्वर्ण सा निखर रही ।
उम्र के बहाव का आधार भी अजीब है ।
ठंड की बहार का सिंगार भी अजीब है ।
लाज से कली कली शाख से सिमट गयी ।
हौले से घूँघट हटा मधुप से लिपट गयी ।
खुद को सौंप देने का करार भी अजीब है ।
ठंड की बहार का सिंगार भी अजीब है ।
सतीश मापतपुरी - पटना (बिहार)