ठंड का सिंगार - गीत - सतीश मापतपुरी

ठंड की  बहार का सिंगार भी अजीब है ।
शीत की जवानी का ख़ुमार भी अजीब है ।

क्या हुआ हवा को जो सर्द में बहक गयी ।
संदली बदन के पोर पोर सा महक गयी ।
इस गुलाबी रुत का संस्कार भी अजीब है ।
ठंड की  बहार का सिंगार भी अजीब है ।

धुँधली सी याद कोई शून्य में उभर रही ।
कौन है जो कल्पना में स्वर्ण सा निखर रही ।
उम्र के बहाव का आधार भी अजीब है ।
ठंड की  बहार का सिंगार भी अजीब है ।

लाज से कली कली शाख से सिमट गयी ।
हौले से घूँघट हटा मधुप से लिपट गयी ।
खुद को सौंप देने का करार भी अजीब है ।
ठंड की  बहार का सिंगार भी अजीब है ।

सतीश मापतपुरी - पटना (बिहार)

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